मेरठ – टीबी यानी ट्यूबरक्लॉसिस आज भी दुनियाभर के लिए एक बड़ी बीमारी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने टीबी को मौत का 13वां सबसे बड़ा कारण बताया है, और कोविड-19 के बाद इसे दूसरा सबसे बड़ा किलर वायरस बताया है. हालांकि, टीबी से बचा जा सकता है और इसका इलाज संभव है. भारत के आंकड़ों को देखा जाए तो यहां पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा टीबी केस हैं, जिसके चलते ये जरूरी हो जाता है कि यहां के लोगों को इसके बारे में सही जानकारी हो.
बीएलके मैक्स सुपर स्पेशलिटी अस्पताल नई दिल्ली में सेंटर फॉर चेस्ट एंड रेस्पिरेटरी डिजीज के सीनियर डायरेक्टर व एचओडी डॉक्टर संदीप नायर ने टीबी को लेकर तमाम अहम जानकारियां साझा की. भारत सरकार भी टीबी के खिलाफ लड़ रही है. सरकार का संकल्प है कि 2025 तक देश को टीबी मुक्त बनाया जाए. जबकि यूनाइटेड नेशंस के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (SDGs) का टारगेट 2030 तक पूरी दुनिया से टीबी का खात्मा करना है. बैक्टीरियम माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस के कारण टीबी होता है. टीबी मुख्य रूप से लंग्स यानी फेफड़ों पर असर करता है और कुछ मामलों में शरीर के अन्य हिस्सों में भी फैल जाता है. जब एक संक्रमित व्यक्ति खांसता या छींकता है, तो उसके पास मौजूद असंक्रमित व्यक्ति को भी टीबी होने का खतरा रहता है क्योंकि ये हवा में फैलता है.
दुनिया की लगभग एक-चौथाई आबादी के अंदर टीबी बैक्टीरिया होता है, लेकिन सब मामलों में ये बीमारी का रूप नहीं लेता है. जिन लोगों का इम्यून सिस्टम कमजोर होता है, जैसे एचआईवी से संक्रमित लोग, कुपोषित, डायबिटीज से पीड़ित, ऐसे लोगों को टीबी होने का खतरा ज्यादा रहता है. इसके अलावा घनी आबादी, कमरों या घरों का खराब वेंटिलेशन, स्वास्थ्य की सही देखभाल नहीं होने के कारण टीबी के प्रसार की आशंका रहती है. टीबी के लक्षणखांसी, बलगम और खून के साथ खांसी, सीने में दर्द, कमजोरी, वजन घटना, बुखार और रात में पसीना आना, ये सब टीबी के लक्षण होते हैं. किसी व्यक्ति की रोजमर्रा की लाइफ कैसी है, उसका खानपान कैसा, उसके आधार टीबी की गंभीरता बढ़ती है. शारीरिक नुकसान के साथ-साथ टीबी से मरीज और परिवार भावनात्मक और आर्थिक तौर पर भी कमजोर पड़ जाता है.
इस बीमारी में सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला अंग फेफड़े होते हैं. इसके अलावा टीबी दूसरे अंगों पर भी असर डालता है, जैसे- किडनी, रीढ़ और दिमाग. इसके अलावा टीबी से फेफड़े खराब हो जाने और सुनने की क्षमता कम होने का भी खतरा रहता है. टीबी दो तरह की होती है, लेटेन्ट और एक्ट्विव. लेटेन्ट टीबी में किसी व्यक्ति के अंदर बैक्टीरिया तो पनप जाता है लेकिन ये बीमारी का रूप नहीं लेता. जबकि एक्टिव टीबी में व्यक्ति बीमार पड़ जाता है, और ये हवा में फैलती है. कुछ मामलों में लेटेन्ट टीबी ही आगे चलकर एक्टिव टीबी में बदल जाती है, खासकर उन लोगों में जिनका इम्यून सिस्टम कमजोर होता है. टीबी के इलाज में एंटीबायोटिक दवाइयां दी जाती हैं और ये इलाज करीब 6-9 महीने तक चलता है. हालांकि, मल्टी ड्रग-प्रतिरोधी टीबी इलाज को मुश्किल बना देता है, जिसके लिए वैकल्पिक दवा की जरूरत होती है.
अच्छा खाना, एक्सरसाइज और पर्याप्त आराम, टीबी से बचाव और इम्यून सिस्टम को बेहतर में जरूरी होता है. टीबी का बार-बार होना बहुत आम बात है. दरअसल, कुछ लोग जब अच्छा महसूस करने लग जाते हैं तो वो इलाज बीच में ही छोड़ देते हैं जिसके चलते उन्हें फिर से टीबी हो जाती है. ऐसे में टीबी के इलाज फुल कोर्स करना जरूरी है ताकि अच्छे से रिकवरी हो सके और दोबारा टीबी के खतरे से बचा सके. मल्टी-ड्रग वाले जो मरीज होते हैं उन्हें लगातार देखभाल की जरूरत पड़ती है. हर साल लाखों लोग टीबी से संक्रमित होते हैं और अपना जीवन गंवा देते हैं. खासकर, टीबी के लिए मौजूद इलाज की जानकारी के अभाव में ऐसा काफी होता है. कुछ लोगों को लगता है कि टीबी का खात्मा हो गया, लेकिन ये गलत धारणा है. यही वजह है कि आज भी टीबी भारत के लिए एक बड़ा हेल्थ इशू है और दुनियाभर में भी. लोगों को इस बात की जानकारी होना जरूरी है कि ये बीमारी फैलती है, इसके लक्षण क्या हैं और इलाज के क्या क्या विकल्प हैं. सरकार, डॉक्टर और आम जनता के समन्वय से ही 2025 तक भारत और 2030 तक दुनिया को टीबी मुक्त करने का लक्ष्य साकार हो पाएगा।
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