बोन मैरो ट्रांसप्लांट के बारे में जानिए सब कुछ

Ticker

15/recent/ticker-posts

बोन मैरो ट्रांसप्लांट के बारे में जानिए सब कुछ

बोन मैरो ट्रांसप्लांट के बारे में जानिए सब कुछ
मेरठ : बीएलके-मैक्स सेंटर फॉर बोन मैरो ट्रांसप्लांट, बीएलके मैक्स हॉस्पिटल, नई दिल्ली में एसोसिएट डायरेक्टर डॉक्टर पवन कुमार सिंह ने बोन मैरो ट्रांसप्लांट (बीएमटी) से जुड़े हर पहलू पर जानकारी साझा की है. बीएमटी वह प्रक्रिया है जिसके जरिए ब्लड और अन्य जेनेटिक बीमारियों का इलाज होता है. ये खराब बोन मैरो को सामान्य बोन मैरो से रिप्लेस करने की प्रक्रिया है.मरीज के बोन मैरो को कीमोथेरेपी या रेडिएशन थेरेपी के जरिए नष्ट किया जाता है और इसके बाद डोनर की स्टेम सेल को ब्लड की तरह सेंट्रल लाइन के जरिए चढ़ाया जाता है.

ब्लड कैंसर, ब्लड सेल्स से जुड़ी जेनेटिक बीमारियां, पाचन से जुड़ी जन्मजात बीमारियां और ऑटोइम्यून से जुड़ी बीमारियों का इलाज बीएमटी से किया जा सकता है.

ऑटोलोगस- इसमें स्टेम सेल्स का स्रोत रोगी खुद होता है. इस तरह के बीएमटी में दो सिद्धांत उपयोग किए जाते हैं. पहला, हाई डोज थेरेपी यानी मायलोमा और रिलैप्स लिम्फोमा जैसी बीमारियों के लिए. एएससीटी का सिद्धांत स्टेम सेल रेस्क्यू के जरिए हाई डोज कीमोथेरेपी होता है. इस बीमारी को लंबे समय तक नियंत्रित रखने के लिए हाई डोज कीमोथेरेपी दी जाती है. दूसरा सिद्धांत है इम्यून सिस्टम को रिसेट करना. इसमें मल्टीपल स्केलेरोसिस, सिस्टमिक स्क्लेरोसिस, डर्माटोमोसिटिस, एसएलई जैसी ऑटोइम्यून बीमारियों के इलाज होते हैं.

एलोजेनिक-इसमें मरीज की बोन मैरो की जगह डोनर की सामान्य बोन मैरो चढ़ाई जाती है. इस तरह की बीएमटी में दो सिद्धांत अपनाए जाते हैं. पहला, ग्राफ्ट वर्सेस ल्यूकेमिया इफेक्ट. एलोजेनिक बीएमटी में मरीज के हेमेटोपोएटिक सिस्टम को डोनर से रिप्लेस कर दिया जाता है और इस प्रक्रिया के जरिए उसे (मरीज को) डोनर से नया इम्यून सिस्टम मिलता है.

रिप्लेसमेंट ऑफ डिफेक्टिव सिस्टम- खराब मैरो के इलाज के लिए इस सिद्धांत का उपयोग किया जा रहा है. एप्लास्टिक एनीमिया, पैरॉक्सिज्मल नॉक्टेर्नल हीमोग्लोबिन्यूरिया (पीएनएच) एक्वायर्ड बीमारियां मानी जाती हैं. रेड सेल्स डिसऑर्डर्स (थैलेसीमिया, सिकल सेल डिजीज), प्लेटलेट डिसऑर्डर, प्राइमरी इम्युनोडेफिशिएंसी डिजीज या पाचन से जुड़ी जन्मजात समस्याएं जेनेटिक बीमारियों में आती हैं. लेकिन इलाज के इस मेथड में जीवीएचडी का खतरा रहता है.

एलोजेनिक बीएमटी के लिए एचएलए (ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजन)  जरूरी है. भाई-बहनों में पूरी तरह से मेल खाने वाले HLA डोनर के मिलने की संभावना एक तिहाई है और परिवार के अन्य सदस्यों में लगभग एक फीसदी.

पिछले कुछ वक्त से हाफ मैच डोनर भी असरदार साबित हो रहे हैं. इसके साथ ही डोनर पूल बढ़ा है और अब उन दो तिहाई मरीजों को भी बीएमटी ऑफर की जा सकती है जिन्हें दुर्भाग्य से पूरी तरह मैच डोनर नहीं मिल पाते थे.

वैश्विक स्तर पर वालंटियर रजिस्ट्रेशन के जरिए उन डोनर्स को सेलेक्ट किया  जाता है जिनके एचएलए 9/10 या 10/10 मैच कर जाते हैं.

बीएमटी के लिए मरीज और डोनर, दोनों की फिटनेस स्क्रीनिंग की जाती है. इसके बाद मरीज की कंडिशनिंग रेजिमेन (कीमोथेरेपी ± टोटल बॉडी इरेडिएशन ± इम्यूनोथेरेपी) की जाती है और इसके बाद डे जीरो से डोनर से ली गई स्टेम सेल्स डाली जाती है. इसके बाद 10 से 18 दिन में डोनर की सेल काम करना शुरू कर देती है.

बीएमटी के बाद तत्काल प्रभाव से इंफेक्शन (बैक्टीरियल और फंगल), ब्लीडिंग, रिजेक्शन, वीओडी और रेजिमेन से संबंधित टॉक्सिसिटी और बाद में इंफेक्शन (फंगल और वायरल), जीवीएचडी हो सकते हैं. लेकिन अधिकतर मामलों में समय से इलाज के जरिए इन समस्याओं को कंट्रोल किया जा सकता है.

एप्लास्टिक एनीमिया, प्राइमरी इम्यूनो डिफिशिएंसी डिजीज और थैलेसीमिया में बीएमटी शानदार रही है. ब्लड कैंसर के मामलों में भी रिलैप्स की संभावनाओं को देखते हुए खासकर हाई रिस्क बीमारियों में बीएमटी कराया जा सकता है, क्योंकि ये बीमारी को लंबे समय के लिए नियंत्रित कर सकता है.